सुबह के छ: बज रहे थे, मेरे साथी बैड पर बैठ कर प्राणायाम करते हुए जोर जोर से सांसें ले रहे थे। मार्च का महीना और लाहौल घाटी की ठण्ड, तापमान भी माइनस में ही था। मैं भी जल्दी से उठा और दैनिक कार्यो से निवृत हो कर हम दोनों तैयार हुए ही थे कि किसी ने दरवाजा खटखटाया, देखा तो सामने ऊन का एक मोटा सा कोट पहने हुए सिर पर लाहौली टोपी लगाकर विश्राम गृह का चौकीदार गर्म चाय लेकर आया था। हमने गर्म-गर्म चाय की चुस्कियां ली और चौकीदार का धन्यवाद् करके निकल दिए। बाहर टेक्सी वाला हमारा इंतजार ही कर रहा था। सभी के मुंह से भाप निकल रही थी, हम भगवान को याद करते हुए चल उदयपुर से तिंदी की ओर चल पड़े।
दरसल हमें किसानों के खेतों में जाकर उनको सेब की फसल की पैदावार के बारे में बताना था। देवदार के घने जंगलो मे से गुजरते हुए हमारी गाड़ी 6-7 किलो मीटर चलने के बाद एकाएक रुक गयी। ड्राईवर ने आगे जाने से मनाकर दिया क्योंकि सामने एक बड़ा ग्लेशियर था। मिलिटरी वालों की मशीने रास्ता बनाने मे लगी थी। आख़िरकार हमें उतारने ही पड़ा। मेरे साथ, मेरे उद्यान प्रसार अधिकारी, उदय सिंह, लगभग 56 साल के है, ने मुझे कुछ हौसला दिया और हम आगे बढ़ने लगे। ग्लेशियर को कुछ एसे से काटा गया था मानों कोई 50 फुट ऊँची गुफा हो जिसका छत ऊपर से खुला था, एक अदभूत दृश्य था। जैसे ही हमने उसमे प्रवेश किया तो ऐसा लगा की हम किसी कोल्ड स्टोर मे आ गए हों । चलने मे काफी दिक्कत हो रही थी संभल कर चलना पड़ रहा था, क्योंकि बर्फ बहुत सख्त थी और फिसलने की पूरी संभावना थी।
एक दम ठंडी हवा ने हमारे शरीर को लगभग सुन्न सा कर दिया था । चूँकि रास्ता बंद था और गाड़ी के आगे जाने की कोई उम्मीद नहीं थी इसलिए हम पैदल ही निकल लिए। तभी उदय सिंह ने जोर से आवाज़ मारी "साहब जल्दी-जल्दी चलो, धूप निकलने पर ऊपर पहाड़ी से पत्थर गिरना शुरू हो जाएंगे।" बातें करते-करते हमने तेज़ी से आगे बढना शुरू किया। शरीर में भी कुछ गर्मी आने लगी थी । रास्ता काफी खतरनाक था, पहाड़ी से पत्थर ऐसे लटक रहे थे मानों अभी गिरने वाले हों । कुछ दूरी पर अखरोट के पेड़ दिखाई दिए, उस जगह को "भीम बाग़" के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि अज्ञातवास के समय पांडव कुछ दिनों के लिए यहाँ रुके थे। लगभग 5 किलो मीटर चलने के बाद हमें 2-3 मकान दिखाई दिए। थकान भी हो चुकी थी और हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था। हमने थोड़ा विश्राम किया, लाला से चाय और बिस्कुट लिए और जल्दी से दोबारा चलना शुरू कर दिया क्योंकि तिंदी पहुँचने के लिए हमें अभी 15 किलो मीटर का सफ़र तय करना था। चिनाब नदी के साथ हम दोनों बातें करते हुए जा रहे थे, उदय सिंह अपने जवानी के किस्से सुनाते और हम खूब हँसते, काफी रास्ता भी तय कर लिया था। मैं बीच -बीच में उदय सिंह से पूछता "अभी और कितना दूर है", "बस सर थोड़ा सा बचा है", शायद मुझे होंसला देने के लिए वो ऐसे बोलते थे। हम लगभग तिंदी से 4 किलो मीटर पीछे थे की सामने एक बड़ा भयंकर ग्लेशियर फिर नज़र आ गया। ऐसा लग रहा था मानों कुछ देर पहले ही आया हो। ग्लेशियर पर कोई रास्ता भी नहीं बना था, शायद उस पर चढ़ने वाले हम पहले यात्री थे । आगे तो बढना ही था इसलिए ग्लेशियर पर चढ़ तो गए जब लेकिन नीचे उतरने की बारी आई तो प्राण कंठ में आ गए। ढलान बहुत अधिक थी, मेरे जूते भी फिसलन वाले थे। क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा था, उदय सिंह तो नीचे उतर गए पर मैं ऊपर ही फंसा रह गया । अगर नीचे फिसल जाते तो सीधे चिनाब में विसर्जन हो जाता और शायद कुछ भी न मिलता। ज़िन्दगी का वो पल में कभी भी नहीं भुला पाऊँगा, मैंने सभी देवी देवताओं को याद कर लिया था । आख़िरकार संभल-संभल कर नीचे उतरा तो साँस में साँस आई ।
अब हरे भरे जंगल नज़र आने लग गए थे । थोड़ा सा चलने पर एक 13 -14 साल के लड़के से मुलाकात हो गयी । वो वहां भेड़ें चरा रहा था, और हमें बड़े हैरानी से देखने लगा । हमने उससे थोड़ी सी बातचीत की, तिंदी गाँव के बारे में पुछा और बातें करते करते हम लगभग एक घंटे में हम तिंदी पहुँच गए । हल्की हल्की बर्फ़बारी शुरू हो गयी । एक नेपाली ढाबे पे खाना खाया, सच मानिये दाल चावल के साथ खाना अत्यंत ही स्वादिष्ट लग रहा था । बिस्तर पर थोड़ा सा आराम करने बैठे ही थे कि पता ही नहीं चला कब आँख लग गयी । कुछ ही समय में हम गहरी नींद में सो चुके थे ।